कृष्णकृति महोत्सव में अर्पणा कौर ने पांच दशकों की अपनी कृतियों की झलक पेश की
हैदराबाद, 11 जनवरी: अर्पणा कौर ने 1975 में जब अपनी पहली एकल प्रदर्शनी का आयोजन किया था तब
चित्रकार अर्पणा कौर |
उनके रचना कर्म को देखने के लिये इतने कम दर्शक पहुंचे कि युवा कलाकार को घोर निराशा हुयी जबकि वह प्रदर्शनी उनके गृह नगर - दिल्ली में आयोजित हुयी थी। वह बताती हैं कि उस प्रदर्शनी को देखने वालों की संख्या न के बराबर होती थी या किसी-किसी दिन तो एक या दो से कुछ ही अधिक होती थी। अपनी प्रदर्शनी दीर्घा में अकेली बैठी कलाकार को उसके दोस्त यह कहकर उसे चिढ़ाते थे, ’’अब आगे तुम कब एक दर्शक वाली प्रदर्शनी आयोजित करोगी ?’’ आज तीन दशक बाद 60 साल की उम्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खासी शोहरत हासिल कर चुकी यह कलाकार अपनी कृतियों का पुनरावलोकन प्रस्तुत करने के लिये हैदराबाद शहर आयी हुयी हैं। हैदराबाद में चल रहे वार्षिक कृष्णकृति कला एवं संस्कृति महोत्सव के दौरान आयोजित व्याख्यान में उन्होंने अपने कला जीवन से जुडी यादों को ताजा किया। ‘‘एक चित्रकार की (50 साल की) यात्रा‘‘ नामक विषय पर आयोजित अपने व्याख्यान में अंतर्राष्ट्रीय तौर पर प्रतिष्ठित कलाकार अपर्णा कौर ने नौ साल की उम्र से शुरू हुयी अपनी कला यात्रा की स्मृतियों को साझा किया। जब वह छोटी थीं तब उन्होंने एक चित्र बनाया जिसका शीर्षक दिया - मां। वह आज खुलकर बताती हैं कि उन्होंने लीजेंडरी कलाकार अमृता शेर-गिल की कृतियों से प्रेरित होकर वह चित्र बनाया जिनका निधन अर्पणा कौर के 1954 में जन्म होने से 13 साल बाद हो गया था। 21 साल की उम्र में देश की राजधानी में आयोजित अपनी पहली एकल प्रदर्शनी के दौरान उन्हें जो निराशाजनक प्रतिक्रिया मिली उसका बदला उन्होंने 1981 में लिया जब उन्होंने ‘‘लापता दर्शक’’ नामक प्रदर्शनियों की श्रृंखला आयोजित की और ये प्रदर्शनियां अत्यंत सफल रहीं। इन प्रदर्शनियों में उनकी एक ऐसी कृति को भी प्रदर्शित किया गया जिसमें एक स्त्री को एक खाली कुर्सी के समक्ष अपनी कला का मंचन करते हुये दिखाया गया था। शनिवार की शाम एल. वी. आई. इंस्टीच्यूट में आयोजित व्याख्यान के दौरान उन्होंने फीकी मुस्कान के साथ कहा, ‘‘मैंने अपने भीतर की आग को जलाये रखा।’’ पांच दिन के कृष्णकृति महोत्सव का आयोजन वर्ष 2004 में स्थापित कृष्णकृति फाउंडेशन की ओर से किया जा रहा हैं। उन्होंने बताया कि 1981 में उनके शहर में हुये सिख विरोधी दंगों से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी आंखों से देखी भयावह दृश्यों को कैनवास पर उतारा जब उनके समुदाय के 3,500 से अधिक लोगों को मार डाला गया। इस भयंकर अराजकता ने एक अन्य प्रदर्शनियों की श्रृंखला को जन्म दिया जिसका शीर्षक दिया - ‘‘दुनिया चलती रहेगी’’। इस श्रृंखला का आयोजन 1986 में आयेाजित किया गया जिसके तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उत्पन्न भयावहता को उजागर किया। कौर ने याद करते हुये कहा, ‘‘इस तरह की हिंसा का सामना उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। वह बताती हैं कि किस तरह से उन्होंने उस समय उनके साथ काम कर रहे एक बढ़ई की जान बचायी जब लोग पागलपन पर उतारू थे। इस श्रृंखला के कारण उन्हें 1986 में ट्राइनाले अवार्ड मिला।
उसके एक साल बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के वृंदावन की अपनी अप्रत्याशित यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात विधवाओं से हुयी। इनमें से कई सड़कों पर गुजर-बसर कर रही थीं और भजन गाते हुये अपना जीवन काट रही थी। कौर बताती हैं उनका शरीर सूख कर कांटे की तरह हो गया था और उनके सिर मूंडे हुये थे। उन्हें देखकर मैं अत्यंत विचलित हो गयी। वह बताती हैं कि वृंदावन की यात्रा दरअसल पास के मथुरा शहर में एक संग्रहालय को देखने जाने के दौरान हुयी। उन्होंने अपने व्याख्यान के दौरान माहौल को थोड़ा हल्का बनाते हुये बताया कि 1955 में एक दिन उन्हें हिरोशिमा में कमीशंड वर्क के लिये निमंत्रण मिला जिसमें उन्हें ‘‘श्री अर्पणा कौर’’ से संबोधित किया गया था। उन्हें गलत लिंग से संबोधित किया गया जो जापान में पूर्वाग्रह आधारित सांस्कृतिक बिरादरी का संकेत था। इसके बारे में बाद में उनके हमवतन दोस्त ने बताया था। उन्होंने उस चुनौती को स्वीकार करके अनेक तरह से पूर्वी एशियाई के कला प्रेमियों को आश्चर्य में डाल दिया। जापान पर हुये परमाणु नरसंहार की 50 वीं बरसी के लिये हिरोशिमा आधुनिक कला संग्रहालय के स्थायी संग्रह के लिये बनायी गयी अपनी विशालकाय कृति के बारे में बताते हुये वह कहती हैं, ‘‘उनके पास इसकी बहुत सुखद स्मृतियां हैं।’’ संयोग से अर्पणा की मां अजीत कौर, जो एक जानी-मानी लेखिका थी, स्कूल के शुरूआती दिनों में जापान के दो शहरो पर गिराये गये परमाणु बमों से मारे गये लोगों के लिये प्रार्थना करती थी। इस व्याख्यान के दौरान कौर ने अपनी 1980 की श्रंखला ‘‘धरती’’ के बारे में भी बताया। जिनमें नानक, कबीर और बुद्ध, स्वतंत्रता-संग्राम के उनके चहते नायकों - भगत सिंह, उधम सिंह और महात्मा गांधी को चित्रित किया गया था। उन्होने अर्जुन पर बनाये गये एक एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग का भी जिक्र किया जैसा कि तमिलनाडु के महाबलिपुरम् की मूर्तियों में दिखाया गया है। उन्हेांने 1995 में बनयी गयी अपनी कृति ‘‘सिटी आॅफ डिजायर्स एंड कल्पवृक्षम’’ के बारे में भी जिक्र किया। उन्होंने अपनी कृतियों में वार्ली आर्ट तथा मधुबनी पेंटिंग्स में परम्परागत तत्वों का इस्तेमाल करने के बारे में भी बात की। एक घंटे तक चले कौर के व्याख्यान के बाद वयोवृद्ध लैंडस्केप पेंटर परमजीत सिंह पर बनी एक फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ जो श्रोताओं के साथ बातचीत करने के लिये वहां उपस्थित थे। इस 70 मिनट की फिल्म ‘‘द सेवंथ वाक’’ में अमृतसर में जन्में कलाकार तथा उनकी कृतियों को दिखाया गया है। इसका निर्देशन युवा एवं प्रयोगधर्मी निर्देशक अमित दत्ता ने किया है। परमजीत सिंह अपनी कृतियों में हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के दृश्यों के साथ अपने जीवन को जोड़कर रौशनी एवं रंगों का इस्तेमाल करने के लिये जाने जाते हैं। 7 से 11 जनवरी तक चले इस महोत्सव के दौरान उच्च स्तरीय नृत्य, सिनेमा और पेंटिंग को प्रदर्शित किया गया। इस दौरान वार्ताओं, सेमीनारों एवं कार्यशालाओं का भी आयोजन हुआ। इस महोत्सव की रूपरेखा कृष्णकृति फाउंडेशन के प्रमुख प्रशांत लाहोटी ने तैयार की।
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