हैदराबाद, 9 जनवरी: वयोवृद्ध सैयद हैदर रजा की कृतियां जीवन का उत्सव का प्रतीक हैं। विभिन्न धर्मों में आस्था रखने वाले इस कलाकार के द्वारा सृजित की गयी पेंटिंग मूक प्रार्थना के माध्यम से शांति प्रदान करती है। प्रसिद्ध साहित्यकार और दृश्य कला प्रेमी अशोक वाजपेयी ने राजा की कृतियों के प्रति इस प्रकार अपना विचार व्यक्त किया।
Ashok Vajpey |
पिछले काफी समय से शय्याग्रस्त और अगले महीने अपने जीवन के 93 वर्ष को पूरा करने वाले पद्म विभूषण से सम्मानित कलाकार ने अपनी नजर खराब होने तक पेंटिंग बनाना जारी रखा। कवि वाजपेयी ने कहा, ‘‘हमें विस्मित करने के लिए, वह हमेशा सही रंग लेते थे और कैनवास पर उपयुक्त स्थानों में उन्हें भरते थे। उनकी पेंटिंग को देखकर ऐसा लगता है मानो उनकी उंगलियों में भी दृष्टि है।’’
हैदराबाद शहर में आयोजित कृष्णकृति कला और संस्कृति वार्षिक महोत्सव के तहत शहर में आयोजित एक व्याख्यान में जाने माने सांस्कृतिक प्रबंधक ने कहा, ‘‘रजा मुझे आध्यात्म के दहलीज पर लेकर आये। भगवान में विश्वास नहीं रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के साथ ऐसा होना अजीब बात है।’’
गुरुवार शाम को एलवी प्रसाद नत्रे संस्थान में पेंटर पर एक कवि का दृिष्टकोण’ विषय पर आयोजित एक व्याख्यान में, 73 वर्षीय वाजपेयी ने कहा कि पेरिस में 60 साल तक रहने वाले ‘मेरे बुंदेलखंडी साथी’ की कृतियां ‘मानव आत्मा के भूगोल को मापने’ का प्रयास हैं। वे पेरिस में सबसे लंबे समय तक रहने वाले भारतीय कलाकार हैं।
1979 से ही रजा के दोस्त रहे श्री वाजपेयी ने उन छणों को याद किया जब अंतर्राष्ट्रीय सेलिब्रिटी को ‘अत्यंत उदार व्यक्ति’ करार दिया गया। वक्ता ने श्री रजा के खराब स्वास्थ्य के बारे में टेलीफोन पर हुई बातचीत सुनने पर एक आदिवासी चित्रकार को एक लाख रुपये सहायता देने के एक वाकये का हवाला देते हुए कहा कि इससे साथी कलाकारों आरै यहाँ तक कि अजनबियों को भी उनके जीवन के किसी भी समय में मदद मिलेगी।
आलोचक, अनुवादक, संपादक और भारतीय और विदेशी संस्कृतियों के बीच बातचीत को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत कार्यकर्ता वाजपेयी ने वर्तमान मध्य प्रदेश के जंगल के पास स्थित मण्डला जिले में ‘सौंदर्य और आतकं से भरे’ एक आदिवासी बेल्ट में रजा की परवरिश की एक तस्वीर पेश की। उसके बाद दुनिया भर में ख्याति और पुरस्कार प्राप्त करने के बाद 2010 में भारत लाटैने से पहले उन्होंने उनके बम्बई आने और बाद में 1950 में पेरिस जाने पर भी तस्वीर पेश की।
वाजपेयी ने उनके लंबे समय तक विदेशी फोन कॉल को याद करते हुए कहा, ‘‘फ्रांस में छह दशक तक निवास के दौरान भी, रजा की हिंदी साहित्य में रुचि बनी रही और वे इस क्षेत्र में हुए विकास के बारे में जानने को इच्छुक रहे। हालांकि, वह एक अनिच्छुक वक्ता बने रहे। वह हमेशा कहते थे कि उन्हें अपनी कृतियों को अभिव्यक्ति देनी होगी।’’
वाजपेयी के घंटे भर के भाषण के बाद सवाल-जवाब सत्र का आयोजन किया गया और उसके बाद तेलंगाना संस्कृति शोधकर्ता निर्मला बुलिका के द्वारा ‘कथा पत्रिका चित्रकारी परंपरा और समकालीन कला प्रथाओं पर उनके प्रभाव’ पर एक वार्ता का आयोजन किया गया।
शाम में, अन्नपूर्णा इंटरनेशनल स्कूल आॅफ फिल्म एंड मीडिया की ओर से असम के उभरते मोबाइल रंगमंच पर एक वृत्तचित्र का प्रदर्शन किया गया। दिल्ली स्थित मेराजुर रहमान बरुआ के ‘नाइन मंथ्स’ शीर्षक वाली 70 मिनट की इस फिल्म में, पूर्वोत्तर राज्य में नए जमाने की उभरती रेपेरेटरी संस्कृति को दर्शाया गया, जहां सिनेमा देर से आया।
असम के लखीमपुर जिले के निवासी, बरुआ ने अपनी फिल्म में दिखाया कि किस प्रकार 30 से अधिक मोबाइल थियेटरों ने उच्च प्रौद्योगिकी और दोहरे स्टेज का इस्तेमाल किया और राज्य भर में एक साल में 210 दिनों तक स्टेज शो का मंचन किया गया। इसके अलावा अच्युत लखार (जिन्होंने 1962 में मोबाइल थियेटर्स की कल्पना की), कला तकनीशियन अद्या सरमा और अभिनेत्री अनुपमा भट्टाचार्य जैसे प्रारंभिक साल के आइकनों के अलावा कई निर्देशकों के साक्षात्कारों को भी दिखाया गया।
Mallika Sarabhai and her troupe present Sampradayam |
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीच्यूट आॅफ इंडिया से फिल्म एप्रेसियेशन कोर्स करनेे के अलावा समाज शास्त्र में मास्टर और मास कम्युनिकेशन में डिप्लोमा करने वाले मध्यम आयु वाले बरुआ के अनुसार, ‘‘यह फिल्म इस बात पर प्रकाश डालती है कि मोबाइल थिएटरों ने किस प्रकार असम में कलाकार परिवारों की आजीविका को बेहतर बनाया, जहां थियेटर समूहों को अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक परिदृश्य पर मजबूत किया गया।’’ 2010 की कृतियां ढाई वर्षों में पूरी की गयी।
गुरुवार को कृष्णाकृति महोत्सव कार्यक्रमों में जानी-मानी शास्त्रीय नर्तक-कार्यकर्ता मल्लिका साराभाई ने भी ‘सम्प्रदायम’ शीर्षक से एक भरतनाट्यम समूह प्रस्तुति पेश की।
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