नयी दिल्ली, 30 मई: प्रमुख कला इतिहासकार का मानना है कि भारतीय उपमहाद्वीप में नव स्वाधीन देशों के गौरव को प्रदर्शित करने की उत्कट भावना के कारण उन देशों में स्थापित संग्रहालयों में औपनिवेषिक शासन काल की कलाकृतियों के बजाय राष्ट्रीय विरासत एवं गौरव को प्रदर्शित करने वाली कलाकृतियों को स्थान दिया गया। इन संग्रहालयों से ही विरासत के संरक्षण की प्रवृति की शुरूआत हुई जो आज तक जारी है।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की डा. कविता सिंह ने राजधानी में आयोजित एक व्याख्यान में कहा कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के राष्ट्रीय संग्रहालयों ने ब्रिटिश शासन काल से पूर्व की विरासतों पर ध्यान केन्द्रित किया। इसका कारण यह भी था कि इन संग्रहालयों की स्थापना इन देशों को आजादी मिलने के तुरंत बाद हुई ।
Kavita Singh |
एक ओर जहां भारत और पाकिस्तान में राष्ट्रीय संग्रहालयों की स्थापना इन दोनों देशों को 1947 में ब्रिटेन से आजादी मिलने के दो साल के बाद हुई जबकि ढाका में 1971 के बंगलादेश मुक्ति संग्राम के दो साल के बाद राष्ट्रीय संग्रहालय की स्थापना हुई। डा. कविता सिंह ने शुक्रवार की शाम को 17 वें राष्ट्रीय सग्रहालय व्याख्यानमाला के दौरान यह बात कही। इस व्याख्यानमाला का शीर्षक था ‘‘द म्युजियम इज नेशनल’’।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल आफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में अध्यापन करने वाली डा. सिंह ने कहा, ‘‘इन संग्रहालयों के संस्थापक यह साबित करना चाहते थे कि सदियों का औपनिवेषिक शासन भी इन देशों के साथ उनके मध्यकालिन एवं प्राचीन इतिहास से उनके रिश्ते को छिन्न भिन्न नहीं कर सका। दरअसल जितना विविधतापूर्ण संस्कृति थी, उतना अधिक प्रयास अपने गौरव की विशिष्ठता को साबित करने के लिये किया गया। यह ‘‘इमेजिन्ड कम्युनिटी’’ का एक उदाहरण था। डा. सिंह स्कूल आफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में दक्षिण एशिया में संग्रहालयों की राजनीति के बारे में अध्यापन करती हैं।
डा. सिंह कहती हैं कि 1912 में स्थापित लंदन संग्रहालय अथवा 1973 में पेरिस में शुरू हुये संग्रहालय - द लौववरे की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप के संग्रहालयों के मामले में मानसिकता बिल्कुल विपरीत नजर आती है। लंदन और पेरिस के संग्रहालयों में कम संख्या में राश्ट्रीय विरासत को प्रदर्शित करने वाली कलाकृतियां हैं और इनमें इतिहास की व्यापक व्याख्या की झलक अधिक मिलती है।
दिल्ली, कराची और ढाका के राष्ट्रीय संग्रहालय एक अलग भावना का परिचय देते हैं और अपनी बेशकीमती ऐतिहासिक विरासत को अधिक प्रदर्शित करते हुये अपने ऐतिहासिक गौरव का बखान अधिक करते हैं। इस तरह से ये तीनों संग्रहालय इस बात को उजागर करते हैं कि ‘‘विरासत अतीत का वह हिस्सा है जिसे हम आत्मसात करते हैं।’’ इसकारण से ही इन संग्रहालयों के लिये वैसी कलाकृतियों को चुना गया जो उन अध्यायों अथवा प्रथाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो राष्ट्रवादी भावना में निहित हैं।
यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि भारत की विरासत को ‘‘सर्वश्रेष्ठ सराहरना’’ नवम्बर, 1947 में ब्रिटेन से मिली जब लंदन के रायल् एकेडमी आफ आर्ट्स ने भारत की कलाकृतियों की प्रदर्शनी आयोजित की। केवल तीन माह पूर्व ही भारत 1868 से शुरू हुये करीब दो शताब्दियों के औपनिवेशवाद की चंगुल से मुक्त हुआ था।
300 कलाकृतियों के इस सेट को ही 1948 में नयी दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में सबसे पहले स्थान मिला। इस संग्रहालय में आरंभ में ब्रिटिश वायसराय का महल था जो बाद में राष्ट्रपति भवन बन गया।
डा. कविता सिंह ने कहा, ‘‘यह प्रतीक विलक्षण था।’’ डा. सिंह हाल में राष्ट्रीय संग्रहालय में दक्षिण एशिया की विरासत पर आयोजित प्रदर्शनी ‘‘नौरस: दक्कन के कई कला रूप’’ की सह क्यूरेटर थी।
अगर राष्ट्रीय संग्रहालय को अंतर्राष्ट्रीय रूप से मशहूर संग्रहालय विद्धान डा. ग्रेस मोर्ले ने विकसित किया तो पाकिस्तान के राष्ट्रीय संग्रहालय को ब्रिटिश पुरातत्ववेता तथा सेना अधिकारी मार्टिमर व्हीलर के रूप में अपना पहला संरक्षक मिला जिन्होंने भारतीय सभ्यता की कला कृतियों को समुचित स्थान प्रदान किया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक के रूप में उन्होंने 1940 के दशक में उत्खनन की निगरानी की थी।
डा. सिंह ने अपने 80 मिनट के पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन के दौरान बताया कि बंगलादेश के मामले में 46 दीर्घाओं के साथ वहां के राष्ट्रीय संग्रहालय की जोरदार शुरूआत हुयी। इसने बंगलादेश की सांस्कृतिक अतीत से कहीं अधिक देश के प्राकृतिक इतिहास को उजागर किया।
इस व्याख्यानमाला के पूर्व राष्ट्रीय संग्रहालय ने घोषणा की गयी कि 28 जनवरी से 20 अप्रैल तक आयोजित नौरस प्रदर्शनी शीघ्र ही आनलाइन होगी और संग्रहालय की वेबसाइट पर 19 वीं शताब्दी तक के 400 वर्षोँ के दौरान की 4120 कलाकृतियों के विवरणों एवं तस्वीरों को प्रदर्शित किया जायेगा।
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