शुक्रवार, 20 मार्च 2015

वक्त की रेत पर पदचिन्ह और चावल के दाने पर वक्तव्य

कोच्चि - मुजिरिस बिनाले में कलाकार हेमा उपाध्याय ने चावल के दानों पर उकेरे जीवन दर्शन 
कोच्चि, 19 मार्च: सर विंस्टन चर्चिल, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, सर एडमंड हिलेरी सभी अपने समय के दिग्गज थे, जिन्होंने अपने प्रेरणादायक शब्दों और कर्मों के साथ वक्त की रेत पर अपने पदचिन्ह छोड़े। अब उनकी अमरता को चावल के दाने पर उद्धरित किया गया है जिसे यहां चल रहे कोच्चि - मुजिरिस बिनाले में प्रदर्शित किया गया है।
 Hema Upadyay's KMB '14 work 'Silence and Its Reflections' at Durbar Hall.
लेकिन यह सिर्फ संयोग है कि कोच्चि - मुजिरिस बिनाले (केएमबी) के एक्जिबिशन स्थल दरबार हाॅल में मुम्बई आधारित कलाकार हेमा उपाध्याय का आकर्षक दृश्य दस्तावेज ‘साइलेंस एंड इट्स रिफ्लेक्षन्स’ शैलीगत और कल्पनाशील विशिष्ठता में अन्य कृतियों से अलग नजर आता है। इस कृति में चावल के लंबे दाने पर पर छह पैनल की पूरी श्रृंखला को बहुत छोटे अक्षरों में हाथ से लिखकर सागर के लहरों की तरह व्यवस्थित किया गया है जिन्हें मैग्नीफाइंग ग्लास से पढ़ा जा सकता है।
इसलिए इन ‘राइस स्केप’ में चर्चिल के प्रसिद्ध उद्धरण को उद्धरित किया गया है: ‘‘यदि आप नरक से गुजर रहे हैं, तो आगे बढ़ते रहिये’’। चावल के दानों पर कुछ अन्य प्रख्यात वाक्यांश भी उद्धरित हैं। ‘‘यह पर्वत़ नहीं है, जिस पर हमें चढ़ाई करनी है बल्कि हमें खुद पर विजय पानी हैं’’ (सर एडमंड), ‘‘दुनिया हर किसी को तोड़ देती है और उसके बाद कुछ टूटे हुए स्थानों पर मजबूत हो जाते हैं।’’ (हेमिंग्वे)।
उपाध्याय अपने इंस्टालेशन के मुख्य विषय के बारे में कहती हैं, ‘‘केएमबी’14 के क्यूरेटर जितिश कलात जब आमंत्रित कलाकारों के साथ अवधारणा नोट पर चर्चा कर रहे थे, तो मैंने वहां हमारे चारों ओर चीजों का एक आध्यात्मिक अस्तित्व महसूस किया। इसलिए मैंने एक माध्यम के रूप में ‘सागर’ को चुना और चावल के पैनलों पर काम किया। यदि दर्शक इस कृति को देखने के लिए छह-सात कदम पीछे जाते हैं तो वे वास्तव में पानी के प्रवाह में एम्बेडेड वाक्यों के साथ चावल के प्रवाह में रेप्लिकेट एक पूरे सागर को देखेंगे।’’
वह कहती हैं, ‘‘इन उपदेशों को पढ़ने के लिए मैग्नीफाइंग ग्लास के इस्तेमाल का विचार व्यक्ति की चेतना को सतह पर लाने का एक तरीका है। मैग्नीफाइंग ग्लास जागरूकता के लिए रूपक बन जाता है।’’
चावल के हर पैनल में विचारक और आध्यात्मिक नेताओं के 35 कोटेशन हैं जिन्हें आम जनता के देखने के लिए अक्सर सड़क के किनारे, पुस्तकों, समाचार पत्रों, स्कूलों, और चर्च के स्थानों में उद्धृत किया जाता है। ये उद्धरण अक्सर उदासीन और भाव विरेचक होते हैं और दर्शक का मूड चिंतनशील बना देते हैं।
उपाध्याय कहती हैं, ‘‘जब मैं मुंबई में अपने स्टूडियो से घर जाती हूं, तो उस रास्ते में ऐसे दो चर्च हैं जिनसे होकर मैं गुजरती हूं और उनके परिसर में ‘दिनभर की सोच’ प्रदर्शित होते हैं। मैंने हर बार इन संदेशों को पढ़ा होगा, लेकिन अजीब बात यह है कि ये संदेश मुझे अपने चारों ओर और कभी- कभी मेरे अंदर भी एक अराजकता की तरह लगते थे। फिर इन उद्धरणों में मुझे जीवन के और अधिक अर्थ और गहराई महसूस होने लगे। उनमें कुछ भेदक गुणवत्ता थी जो मेरे आसपास जो हो रहा है का अर्थ बताते हैं।’’
वह कहती हैं, उदाहरण के लिए, जिन उद्धरणों को मैंने पढ़ा है उनमें से एक है: ‘जब कोई मर जाता है, तो कहीं किसी और का जन्म होता है’। वह कहती हैं, ‘‘उस समय जीवन और मृत्यु का सार मेरे लिए एक बहुत गहरी सोच बन गयी। वहाँ से, मैंने किताबों और इंटरनेट से उद्धरणों को खोजना शुरू किया। मैंने उन्हें इकट्ठा किया और चावल के दाने पर उन्हें लिखने का फैसला किया।’’
‘‘चावल हमारी संस्कृति में अपने आप में एक मजबूत प्रतीक है। यह लालच और भूख का सूचक है। यह कई शहरों में एक मुख्य भोजन भी है। इन संदर्भों में चावल की समझ मेरे काम के नायक बन गए। मैंने कई शहरों, लोगों और परिदृश्य के साथ काम करना शुरू किया और इस बात को समझने की कोशिश की कि लोग किस प्रकार परिदृश्य को बदल देते हैं। इसलिए मैं शहरीकरण और इसके कारण परिदृष्य में परिवर्तन के बारे में बात कर रही हूं। कहीं बोला गया एक विवेकी शब्द या वाक्य हमारे लिए चीजों को अक्सर परिप्रेक्ष्य में डाल देता है।’’ कलाकार कहती हैं, ‘‘कार्य ‘वैश्वीकरण’ की समझ हैं, ‘प्रगति’ के बारे में गलत धारणा हैं, ‘मोनो संस्कृति’ के माध्यम से व्यक्तित्व का दमन हैं, ‘लालच’ और ‘लौटाव की प्रक्रिया’ है, जो इसके साथ आता है।’’ उपाध्याय की प्रवास की उनकी व्यक्तिगत यादें, विभाजन के दौरान उनके परिवार के विस्थापन की यादें और मुंबई में उनके कठिन समय की यादें, सभी भय, अव्यवस्था और पहचान के विखंडन की भावना की खोज करती उनकी कलाकृतियों में प्रतिबिंबित होते हैं।
उत्कीर्णन के बारे में उपाध्याय कहती हैं कि उन्होंने ज्यादातर जहांगीर आर्ट गैलरी के आसपास युवा लोगों को चावल पर विशेषकर पर्यटकों के लिए ऐसे उत्कीर्णन लिखते हुए देखा है जो लोग चावल पर अपना नाम खुदवाना चाहते हैं। मैंने इस परियोजना पर काम करने के लिये इनमें से एक व्यक्ति से संपर्क किया।’’
कलात कहते हैं कि उपाध्याय का इंस्टालेशन अपने भीतर झांकने का एक अंतरंग संदेश है। हालांकि ‘‘चावल के दानों’’ पर एक नयी भाषा को आकार देते हुये यह भौतिक संसार के साथ अपने अंतर्मन के संबंधों को रेखाकित करती है।
वह कहते हैं, ‘‘भारत में सड़कों पर एवं मेलों में आपको ऐसे कलाकार दिख जायेंगे जो अनाज एवं चावल के दानों पर नाम या कोई वाक्य लिखते हैं। ये वाक्य वहां से गुजरने वालों के लिये होते हैं। इनमें से कई वाक्यों पर हमारा ध्यान नहीं जाता है लेकिन ये वाक्य उपदेष का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं जब इन्हें चावल के दानों पर प्रदर्षित किया जाता है। इनके साथ तरंगनुमा प्रभावकारी आयाम जोड़ा जाता है - जिन्हें हम मैग्नीफाइंग ग्लास के जरिये देखते हैं तो यह सबकुछ देख कर देखने वाले अचंभित हुये बगैर नहीं रहते।’’

बुधवार, 18 मार्च 2015

नए जमाने की पोशाकों में झलक रही है प्राचीन डेक्कन कला: संगोष्ठी

नई दिल्ली, 17 मार्च: मध्यकालीन युगीन दक्षिणी भारत में विकसित सौंदर्य कलायें नए जमाने के परिधानों की कढ़ाई में भी अपनी जगह बना रही है और अपने अस्तित्व को बचा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि दक्षिणी भारत की प्राचीन कला बदलती परिस्थितियों में भी खुद को बदलने की क्षमता को प्रदर्शित  कर रही है।
राष्ट्रीय संग्रहालय की ओर से आज आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में विशेषज्ञों ने कहा कि चाहे कर्नाटक की कसुटी और जरी ब्रोकेड हो, आंध्र प्रदेश की कलमकरी और बंजारा हो, तमिलनाडु की तोडा या केरल की फूलों की डिजाइन हो, आज के वस्त्रों में, मुख्य रूप से साडि़यों में डेक्कन की कढ़ाई की छवियां अब भी दिख रही हैं।
उदाहरण के लिए, मंदिरों , रथों, पालकियों  और दीपक के डेक्कनी चित्रण प्रायद्वीप में निर्मित समकालीन वस्त्रों में नवीन अभ्यावेदन को दर्शाते हैं जहां प्रासंगिक कला 16 वीं से 19 वीं शताब्दी के बीच फली- फूली। ‘दक्षिण भारत और वस्त्र संग्रह की निवारक देखभाल से कढ़ाई की कला’ के उद्घाटन सत्र में आज इसकी जानकारी दी गयी।
उद्घाटन सत्र के अपने मुख्य भाषण में कला इतिहासकार चूड़ामणि नंदागोपाल ने कहा, ‘‘बंजारा के लिए, यहां तक कि क्षेत्र की युवा पीढ़ी में भी चमकीले रंगों के प्रति क्रेज है। यहां डिजाइनों में यहां तक कि इस दौरान भी बदलती रुचि के अनुसार बदलाव आ रहे हैं ।’’ इस समारोह का आयोजन राष्ट्रीय संग्रहालय में अभी चल रही और एस्थेटिक प्रोजेक्ट द्वारा नियोजित प्रदर्शनी ‘नौरस: डेक्कन की कई कलाएं’ के मौके पर किया जा रहा है। 2014 में स्थापित एस्थेटिक प्रोजेक्ट भारतीय कला की जांच- पड़ताल करने के लिए शिक्षाविदों, कारीगरों और कलाकारों के लिए एक स्थापना मंच है।
जैन यूनिवर्सिटी, बंगलौर के डीन ने कहा कि टोडा की निरंतर लोकप्रियता यह दर्शाती है कि आदिवासी जड़ों के साथ किसी कला ने अपने निवास स्थान तमिलनाडु से दूर और नजदीक की एक व्यापक दुनिया की कल्पना पर किस प्रकार कब्जा किया हुआ है।
एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फैलोशिप हासिल करने वाले डॉ नंदगोपाल ने कहा कि ओणम के फसल त्योहार के दौरान घरों के सामने यार्ड में बिछायी जाने वाली केरल के प्रसिद्ध फूलों की कालीन की छवियों का इस्तेमाल , बेड-शीट और तकिया कवर जैसे कपड़े के सामानों में भी किया जा रहा है। राज्य में सीरिया कढ़ाई का भी प्रचलन है जो एक संपन्न विदेशी सांस्कृतिक प्रभाव का संकेत है।
इससे पहले, राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. वेणु वासुदेवन ने अन्य वक्ताओं: संग्रहालय की क्यूरेटर (सजावटी कला) अनामिका पाठक, संरक्षण की निदेशक डॉ. आर. पी. सविता और रसायनज्ञ पी. के. नागटा के साथ दीप प्रज्जवलित करने के बाद वक्तव्य दिया।
अगले सत्र में सुश्री पाठक ने दुर्लभ और लंबी कशीदाकारी की हुई ‘टेम्पल हैंगिंग’ के तकनीक और सौंदर्य के बारे में बताया। ‘टेम्पल हैंगिंग’ को राष्ट्रीय संग्रहालय ने 1960 में हासिल किया था और अभी इसे 20 अप्रैल (एक महीने के विस्तार के बाद) को समाप्त होने वाले ‘नौरस’ में प्रदर्शित किया गया है।
दोपहर के सत्र में डॉ. सिमी भगत, डॉ. रोहिणी अरोड़ा, डॉ. वंदना भंडारी और स्मिता सिंह जैसे विशेषज्ञों ने वक्ता के रूप में दक्षिण भारत की सिलाई परंपराओं का विश्लेषण किया।
बुधवार को कशीदाकारी वस्त्रों के रूढि़वादी पहलुओं पर फोकस किया जाएगा। दो सत्रों में संग्रहालय के वातावरण में कपड़ों के संरक्षण के लिए निवारक देखभाल, तरीके और प्रथाओं जैसे मुद्दों को संबोधित करने की उम्मीद है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक विद्या राव शाम में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे।

रविवार, 15 मार्च 2015

‘Performance art’ enlivens installation spirit at Biennale

Kochi, Mar 15: The curious crowd peered through the arched window of a ‘cell’ at a Biennale site as he locked himself inside, stripped down to his undergarment, smeared his face with black paint, drew drawings on the wall, ate and slept.
For 52 uninterrupted hours, artist Nikhil Chopra spent in the prison-like cell at Aspinwall House, the major site of the Kochi-Muziris Biennale (KMB), making ‘performance’ the mainstay of his installation. The marathon performance ended with the protagonist’s escape from his cell, leaving wall drawings and theatrical props as traces of existence. For its sheer length, it was a novel experience for the exhibition visitors in Kerala.

Mithu Sen spent nearly a month at a Kochi orphanage and adopted a fictitious name of ‘Mago’ to experience the travails of sexually exploited minor girls — another example of performance-driven artwork at Aspinwall House. The performance was documented on a home video camera and an iPhone by the artist herself and the children, who intermittently took the camera from her.
Gigi Scaria's 'Chronicles of the Shore Foretold' has also a performance aspect to it. He installed a giant-size metal bell at the Pepper House site by the Mapilla Khalasis, known for their dock-work techniques. The artist called the very act of installing the 2.5-tonne, 13 feet tall bell a performance, conveying a message of their labour through his work.
“My favourite audiences are those who are unaware of gallery art and come to it with curiosity and no preconceived notions,” said Chopra, an alumnus of Vadodara’s M S University who had earlier featured in the Venice Biennial 2009. “I want to be able to talk to women, children…and touch everyone. I want it to be a democratic experience.”
Scaria agrees. “My work has used performance to suggest the importance of labour; it put into perspective the historic and maritime aspects of the exhibition,” he says.
“Performance art is very different from theatrical performance in the manner in which it is conceived and perceived. The performance element is not too dramatic and it does not have a script; it is a gesture to a situation and the artist and the viewer get charged from performing and witnessing it,” he notes.

Elaborating, he says Nikhil Chopra's drawing on the wall is not something that can be framed or exhibited in another art space. So, the act of making his work changes the way of looking at art.

At the ongoing KMB, performances come in both overtly and subtly. For instance, Singaporean Ho Rui An's video installation, ‘Sun, Sweat, Solar Queens: An Expedition’, is all about his performance. It documents his ‘performative lecture’ done in front of the Aspinwall House pavilion in which he discusses the notion of a ‘world of global displacement’ as against globalisation.
KMB’14 curator Jitish Kallat says Ho's work lies at the cross-road where cinema, performance, narration and theory meet. “His performance lecture at KMB was a richly layered garland of imagery and ideas full of imagination, insight and irony,” he adds. 
Likewise, Dutch artist Wendelien van Oldenborgh’s video installation — encapsulating debates on migration, racism and integration in modern Netherlands — is a work that he did with actors.
Performance has always been an important aspect of the works of Yoko Ono, Janine Antoni and Mona Hatoum, who use their body to convey their feminist ideals. Important institutions such as the Guggenheim and the Whitney in New York, the Centre Pompidou in Paris, and the Garage Center for Contemporary Art in Moscow, have mounted major performance art exhibitions for a couple of decades now.

Pushpamala says the making of art is very interesting. “I use the process in my work. All sorts of unexpected things can happen. I find that whole tradition interesting.”

For her biennale installation, 'The Arrival of Vasco da Gama', she says, “Fourteen of us had to pose in the exact recreation of an 1898 painting by Jose Veloso Salgado. It was for the first time that I was playing a male role. The subjective and objective interpretations become very interesting in the final work.”