गुरुवार, 7 मई 2015

प्राचीन संथाल संस्कृति की यूरोप से भारत तक की आकर्षक यात्रा

नई दिल्ली, 7 मई: संगीत वाद्ययंत्रों ने दक्षिण एशिया  से पश्चिमी यूरोप तक की और अब उनके अपने पैतृक देश की राजधानी तक का लंबा सफर तय किया है और इस यात्रा का एक रोमांचक इतिहास रहा है।लगभग आधी सदी पहले, युवा जर्मन पुरालेख विशेषज्ञ  बेंगट फोसहाग को एक सारंगी भेंट की गयी थी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने दुनिया के विभिन्न हिस्सों से वाद्य यंत्रों को जमा करना शुरू किया।
Banam with human and snake head Wood,
leather, thread 80 × 18 × 14.5 cm,
Indira Gandhi Rashtriya Manav Sangrahalaya,
Bhopal 2003-14-AB
इसके बाद सन् 2013 में उन्होंने वाद्य यंत्रों के अपने संग्रह के एक हिस्से को स्विट्जरलैंड स्थित रिटबर्ग संग्रहालय को भेंट कर दिया जिनमें 92 प्राचीन भारतीय वाद्ययंत्र भी शामिल थे। इन वाद्ययंत्रों में कुुछ वाद्ययंत्रों को राष्ट्रीय संग्रहालय में
आयोजित की जा रही एक प्रदर्शनी  में पेश किया गया है। यह प्रदर्शनी 32 दिनों तक चलेगी जिसमें देश की संथाल आदिवासियों की संस्कृति की विरासत की झलक मिलेगी। यह आयोजन ज्यूरिख स्थित रिटबर्ग, दिल्ली स्थित क्राफ्ट म्यूजियम एवं भोपाल स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के सहयोग से आयोजित किया जा रहा है। ‘‘केडेंस एवं काउंटरप्वाइंट: डाक्युमेंटिंग संथाल म्युजिकल ट्रैडिषंस’’ नामक यह प्रदर्शनी 17 मई तक चलेगी जिसमें 44 संथाली वाद्ययंत्रों को प्रदर्शित किया जा रहा है। इनमें मुख्य रूप से ‘‘बनाम, तमाक, केतली ढोलक एवं क्षैतिज मंडल’’ शामिल है। इसके अलावा भारत के पूवी क्षेत्र के आदिवासियों की अनोखी कठपुतली को भी प्रदर्शित किया जा रहा है। इस प्रदर्शनी में 1950 के बाद के करीब साढ़े छह दशक से अधिक की काल अवधि की तस्वीरों को भी प्रदर्शित किया जा रहा है। इस प्रदर्शनी  में आदिवासी संस्कृति के बारे में एक फिल्म को भी दिखाया जायेगा  जिसके जरिये दर्षक 101 वर्ष पूर्व रेकार्ड किये गये संथाली संगीत का भी आनंद उठा सकेंगे। 
इस प्रदर्शनी के क्यूरेटरों में शामिल डाॅ. मैरी-इव केलियो-षयुरर प्राचीन उपकरणों के बारे में बताती हैं कि 1952 में स्थापित संग्रहालय रिटबर्ग ने फोसषाग के संग्रह को सम्पूर्ण रूप में संरक्षित करने की जरूरत को समझा। उन्होंने कहा, ‘‘हम जानते हैं कि इस संग्रह को अलग-थलग नहीं किया जाना चाहिये तथा डीलरों एवं निलामियों के कारण विलुप्त होने नहीं दिया जाना चाहिये।’’ उनके सहयोगी क्यूरेटर डॉ रुचिरा घोष, मुस्ताक खान, कृतिका नरूला और डाॅ. जोहानेस बल्ट्ज ने उनके इस दृष्टिकोण का समर्थन किया।  
ग्राफिक डिजाइनर एवं इल्युस्टेटर फोसाग कहते हैं कि संस्थाल तम्बूरा देखने में इतना आकर्षक होता है कि तुरंत खरीदने का मन करता है। लेकिन वह दुख जताते हुये कहते है कि आज नकली तम्बूरे ज्यादा दिखते है।
संगीत विषेशज्ञ डाॅ. जयश्री बनर्जी ने कहा कि संथाल संगीत परम्परा को झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार में अलग-अलग चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो कि उनके मूल स्थल रहे हैं। वह कहती हैं, ‘‘एक चुनौती तो अपने मूल संदर्भ से विस्थापित होने की है जबकि दूसरी चुनौती वैचारिक परिवेष में हस्तक्षेप की है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आज जब अनेक वाद्य यंत्र विलुप्त होने के कगार पर है वैसे में बदलाव के लिये बाहरी दवाब डाला जा रहा है - या तो अतिरिक्त संगीत विचारों के लिये या परंपरा के मानकीकरण के लिए।’’
इस प्रदर्शनी में 1914 की एक ऑडियो क्लिप को सुनाया जा रहा है। इसमें संथाली संगीत संस्कृति के मिठास को महसूस किया जा सकता है। करीब तीन मिनट की इस क्लिप में यहां आने वाले दर्षकों को आकर्शित करने की क्षमता है। यहां आने वाले दर्षक इस आॅडियो क्लिप को हेड फोन के जरिये भी सुन सकते हैं।जहां तक फिल्म का सवाल है, यह 27 मिनट की है और यह रंगीन है। ‘‘फेसेज ऑफ दी फोरेस्ट’’ नाम की इस फिल्म की शूटिंग 1973 में हुयी थी और इसका निर्देषन देवेन भट्टाचार्य ने किया है। राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित प्रदर्शनी में देबेन भट्टाचार्य के मिदनापुर जिले के कमारबुडी गांव और संताल गांव के फोटोग्राफ को भी दिखाया गया है। 
इस प्रदर्शनी में कलाकार एवं फिल्मकार रविकांत द्विवेदी द्वारा दुर्लभ संथाली प्रथाओं पर तैयार किये गये दस्तावेजों को भी प्रदर्शित किया जा रहा है। इसके साथ ही युवा फोटोग्राफर सुधांषु षाडिल्य की तस्बीरों को भी दर्षाया जा रहा है। 61 वर्षीय द्विवेदी कहते हैं संताल की चादर-बादर कठपुतली (यह कठपुतली भी इस प्रदर्शनी की शोभा बढ़ा रही है) एक सरल सिद्धांत पर काम करती है जो 4500 साल पुराने हड़प्पा युग के स्ट्रिंग खिलौने 
के समान है। सम्पूर्ण दृष्य को प्रस्तुत करने के लिये इस प्रदर्शनी में एक छोटी सी वीडियो स्क्रीन को भी लगाया गया है जिसमें कलाकारों के द्वारा हाथों और पैरों के समन्वय के जरिये कठपुतली नृत्य को दिखाया गया है। इनके साथ गायक गीत भी गाते हैं और नृतक नृत्य भी करते हैं। 
Madal(hand-struck two-headed drum) Terracotta, leather, resin, 55 × 32 × 19 cm, Indira Gandhi Rashtriya Manav Sangrahalaya, Bhopal 2005-243
इस प्रदर्शनी की एक प्रमुख विशेषता यह है कि राष्ट्रीय संग्रहालय नेत्रहीन आगंतुकों को भी प्रदर्शनी का आनंद एवं अनुभव लेने का मौका प्रदान करेगा। इसके लिये ब्रेल पुस्तिकाएं, स्पर्श ग्राफिक्स और एक ऑडियो गाइड का इंतजाम किया गया है। यूनेस्को और विकलांगता से ग्रस्त लोगों के लिये काम करने वाली दिल्ली स्थित संस्था 
‘‘सक्षम’’ के  सहयोग की बदौलत आयोजित इस आयोजन के बारे में राष्ट्रीय संग्रहालय की आउटरिच कंसल्टेंट ज्योति राय कहती हैं, ‘‘इस संग्रहालय के लिये ऐसा पहली बार हुआ है।‘‘राष्ट्रीय संग्रहालय में हाल में आयोजित एक प्रदर्शनी में, 2002 में स्थापित ‘‘सक्षम’’ ने देश के संग्रहालयों से उन उपकरणों को बढ़ावा देने का आह्वान किया जिनसे विकलांगता से ग्रस्त लोगों के बीच सांस्कृतिक अनुभवों का आदान - प्रदान हो सके।