शनिवार, 24 जनवरी 2015

Deccan arts of 16th-19th C to unveil at National Museum

Nauras: 53-day show from Jan 27 to showcase rarely-focused culture of southern sultanates


New Delhi, Jan 24: The eclectic but relatively neglected art of southern India during roughly 400 years till the 19th century when the peninsular belt was particularly cosmopolitan will be on display at the National Museum (NM) here from next week.
Ajaib al Makhluqat
Titled ‘Nauras: The Many Arts of the Deccan’, the 53-day exhibition starting on January 27 is being organised in collaboration with The Aesthetics Project which is a platform of academics, artisans and performers to explore a variety of topics on India’s art history and its aesthetic heritage.
Concluding on March 20, the show, curated by art historians Dr Preeti Bahadur and Dr Kavita Singh, will have all but one of its 120-odd objects from the museum itself — a chunk of them from its reserves. An exquisite selection of the famed Ragamala painting will be loaned from Delhi’s National Gallery of Modern Art, making it yet another joint venture for NM in the recent past.
The exhibition will also throw broader academic light on vintage Deccani arts, as NM and Aesthetics Project are hosting a two-day symposium in the capital on January 28 and 29. That event at Indian International Centre (IIC) will feature 10 presentations by leading art historians of the country.
NM Director-General Dr Venu Vasudevan noted that ‘Nauras’ holds special relevance given that the exhibition would be the first-ever showcasing Deccan’s art between the 16th and the 19th centuries when the region witnessed a lot of give-and-take in its culture.
“While exhibiting the arts, we are also outlining the fascinating history of the region,” he said. “The exhibition is the result of six months of work. It must trigger fresh academic and general interest on Deccani culture of the yore.”
The 2014-floated The Aesthetics Project’s trustee and sponsor Renu Judge said ‘Nauras’ would lend unprecedented focus to the art of the southern sultanates known for their tolerance, syncretism and composite culture. “The Deccani art has rather been under-researched; its contribution to the Indian culture often less acknowledged. ‘Nauras’ that way will be momentous,” she added.
al-Buraq
Dr Vasudevan and Ms Judge will open the exhibition at 11 am on January 27.
Split into six sections, ‘Nauras’ highlights Deccani cosmopolitanism, its singing sultans, perfumes, the Mughal Presence, trade goods and royal lineages.
Important objects at ‘Nauras’ include a painting of al-Buraq (a marbled painting from Bijapur showing Rustom capturing a horse), leaves from an early Ragamala from Ahmednagar or Bijapur, a Kalamkari coverlet from Bijapur of 1630, an 18th-century Qanat from Burhanpur, an embroidered temple hanging from Vijayanagara, the Kitab-i-Nauras manuscript from Bijapur, Deccani copies of the Ajaib al Makhluqat, a book of the wonders of the world, and the armour of Mughal emperor Aurangzeb who spent years fighting military campaigns in the Deccan.
Kitab-i-Nauras
Dr Bahadur, who along with Dr Singh of Jawaharlal Nehru University here began gleaning the Deccani artworks from the NM reserves since September last year, noted that the highly skilled artists and craftsmen of Bahamani Sultanate produced exquisite paintings, manuscripts, metal-ware, textiles, and arms.
“The long coastline of the peninsula fostered trade contacts with regions as far as Southeast Asia, Africa and Europe and goods from the Deccan were in high demand in many parts of the world. Intercultural contacts also resulted in the adaptation of aesthetic tastes and diverse traditions at the local level,” she said, adding: “Deccani advances in music and the arts had a profound influence on Indian art in the north as well.”
Dr Singh said even as the art of the Mughals is widely known and celebrated, the contemporaneous kingdoms of Ahmednagar, Bijapur, Golconda, Berar and Bidar in the Deccan have been comparatively ignored.
The IIC symposium will have five speakers each on the two days. The talks by scholars Navina Haidar, Naman Ahuja, Deborah Hutton, Mark Richard Brand, Katherine Butler Schofield, Jagdish Mittal, Omana Eappen, Susan Stronge, Ali Akbar Husain and Emma Flatt will be followed by conversations with experts.
Qanat

राष्ट्रीय संग्रहालय में 16 वीं से 19 वीं शताब्दी की डेक्कन कला की प्रदर्शनी का शुभारंभ


27 जनवरी से शुरू होने वाली 53 दिवसीय प्रदर्शनी ‘नौरस’ में दक्षिणी सल्तनतों की संस्कृति को प्रदर्शित किया जाएगा।
Ajaib al Makhluqat
नई दिल्ली, 24 जनवरी: राष्ट्रीय संग्रहालय (एनएम) में अगले सप्ताह 16 वीं से 19 वीं शताब्दी तक की करीब 400 सालों के दौरान की दक्षिण भारत की उत्कृष्ट लेकिन अपेक्षाकृत उपेक्षित कला की प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है जब प्रायद्वीपीय बेल्ट विशेष रूप से महानगर के रूप में था।

‘‘नौरस: द मेनी आर्ट्स आॅफ द डेक्कन’’ शीर्षक वाली यह 53 दिवसीय प्रदर्शनी 27 जनवरी से शुरू हो रही है। यह प्रदर्शनी एस्थेटिक प्रोजेक्ट के सहयोग से आयोजित की जा रही है। यह शिक्षाविदों, शिल्पकारों और कलाकारों का एक मंच है जो भारत की कला के इतिहास और इसके एस्थेटिक विरासत पर विभिन्न विषयों की जांच- पड़ताल करती है।
कला इतिहासकारों - डॉ प्रीति बहादुर और डॉ कविता सिंह द्वारा क्यूरेट की गयी यह प्रदर्शनी 20 मार्च को समाप्त होगी । इस प्रदर्शनी में 120 वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। इनमें से विशिष्ट कृति - प्रसिद्ध रागमाला चित्रकला को दिल्ली के नेशनल गैलरी आॅफ माॅडर्न आर्ट से लिया गया है जबकि शेष कृतियों को राष्ट्रीय संग्रहालय के संग्रह से लिया गया है। यह प्रदर्शनी राष्ट्रीय संग्रहालय तथा नेशनल गैलरी आॅफ माॅडर्न आर्ट के संयुक्त उपक्रम के तहत आयोजित की गयी है।
al-Buraq
यह प्रदर्शनी पुरानी दक्षिणी कलाओं पर व्यापक शैक्षिक रोशनी डालेगी क्योंकि राष्ट्रीय संग्रहालय और एस्थेटिक प्रोजेक्ट 28 और 29 जनवरी को राजधानी में एक दो दिवसीय संगोष्ठी का भी आयोजन कर रहे हैं। इंडियन इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में होने वाले इस आयोजन में देश के प्रमुख कला इतिहासकारों के द्वारा 10 प्रस्तुतियां पेश की जाएंगी।
राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. वेणु वासुदेवन ने कहा कि ‘‘नौरस’’ इस मायने में एक खास प्रदर्शनी होगी क्योंकि प्रदर्शनी में 16 वीं से 19 वीं शताब्दी के दौरान की डेक्कन की कला को पहली बार प्रदर्शित किया जाएगा जब इस क्षेत्र में इसकी संस्कृति का काफी अधिक आदान - प्रदान हुआ।
उन्होंने कहा, ‘‘कला के प्रदर्शन के साथ - साथ, हम इस क्षेत्र के आकर्षक इतिहास की रूपरेखा को भी रेखांकित कर रहे हैं। इस प्रदर्शनी की तैयारी में छह महीने लग गये। यह प्रदर्शनी इस काल की डेक्कन संस्कृति पर ताजा शैक्षिक जानकारी प्रदान करेगी और इस संबंध में लोगों की सामान्य रुचि को बढ़ाएगी।’’
2014 में स्थापित द एस्थेटिक प्रोजेक्ट की ट्रस्टी और प्रायोजक सुश्री रेणु जज ने कहा कि ‘नौरस’ अपनी सहिष्णुता, समन्वयता और समग्र संस्कृति के लिए जाने जाने वाले दक्षिणी सल्तनतों की कला पर अभूतपूर्व प्रकाश डालती है। उन्होंने कहा, ‘‘डेक्कन की कला पर बहुत अधिक शोध नहीं किये गये हैं और भारतीय संस्कृति के लिए इसके योगदान को कमतर आंका गया है। इसलिए ‘नौरस’ काफी महत्वपूर्ण साबित होगी।’’
डॉ. वासुदेवन और सुश्री जज 27 जनवरी को सुबह 11 बजे प्रदर्शनी का शुभारंभ करेंगे। 
Kitab-i-Nauras
छह वर्गों में विभाजित, ‘नौरस’ डेक्कन के वैश्विक संबंध, इसके संगीत प्रेमी सुल्तानों, इत्र, मुगल की उपस्थिति, व्यापार के सामान और शाही वंशों पर प्रकाश डालेगा। 
‘नौरस’ में महत्वपूर्ण वस्तुओं में अल- बुराक (रुस्तम को एक घोड़े पर कब्जा करते दिखाती मार्बल से बनी बीजापुर की एक पेंटिंग) की पेंटिंग, अहमदनगर या बीजापुर से रागमाला की पत्तियां, बीजापुर से 1630 की एक कलमकरी चद्दर, बुरहानपुर से 18 वीं शताब्दी की कनात, विजयनगर से एक लटकता हुआ नक्काशीदार मंदिर, बीजापुर से किताब-ए-नौरस की पांडुलिपि, अजायब अल मखलुकत की डेक्कन प्रति, दुनिया के आश्चर्यों की एक पुस्तक, और मुगल सम्राट औरंगजेब का कवच, जिन्होंने डेक्कन में सैन्य अभियानों में वर्षों तक लड़ाई लड़ी थी। 
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के डॉ. सिंह के साथ पिछले साल सितंबर से राष्ट्रीय संग्रहालय के भंडार से डेक्कन की कलाकृतियों का संग्रह करने का कार्य शुरू करने वाले डाॅ. बहादुर ने कहा कि बहमनी सल्तनत के अत्यधिक कुशल कलाकारों और कारीगरों ने उत्तम चित्रों, पांडुलिपियों, धातु के बर्तनों, कपड़ों और हथियारों आदि का निर्माण किया। 
उन्होंने कहा, ‘‘प्रायद्वीप के लंबे समुद्र तट के कारण डेक्कन से दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और यूरोप के क्षेत्रों के साथ व्यापार संपर्कों को बढ़ावा मिला। डेक्कन के उत्पादों की दुनिया के कई हिस्सों में काफी मांग थी। अंतर-सांस्कृतिक संपर्कों के कारण सौंदर्य और विविध परंपराओं को स्थानीय स्तर पर अपनाया गया। डेक्कन में संगीत और कला के क्षेत्र में विकास का उत्तर में भारतीय कला पर गहरा प्रभाव पड़ा।
’’ डॉ सिंह ने कहा कि हालांकि मुगलों की कला को व्यापक रूप से पहचान और प्रसिद्धी मिली लेकिन डेक्कन में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा, बरार और बीदर के समकालीन राज्यों में इसे अपेक्षाकृत नजरअंदाज कर दिया गया। 
Qanat
आईआईसी संगोष्ठी में दोनों दिन पांच वक्ता होंगे। संगोष्ठी में नवीना हैदर, नमन आहूजा, डेबोरा हटन, मार्क रिचर्ड ब्रांड, कैथरीन बटलर स्कोफील्ड, जगदीश मित्तल, ओमना एयप्पन, सुसान स्ट्रोंज, अली अकबर हुसैन और एम्मा फ्लैट्ट की वार्ता के बाद विशेषज्ञों के साथ वाद-विवाद का आयोजन किया जाएगाा।

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

Sweat on shirt of Dutch anthropologist’s statue triggers Singaporean’s work

Ho Rui An’s biennale installation combines thought and humour

Kochi, Jan 20: Ho Rui An was born in Singapore, but to attribute that tropical island’s hot and humid climate to the youngster’s fixation with the sun and sweat in his work at Kochi-Muziris Biennale (KMB) will be a wrong take.
Ho Rui An

For, the 24-year-old artist says his performative talk and installation at the ongoing KMB’14 is a takeoff from an image he stumbled upon inside a heritage repository at the Netherlands capital known for its largely salubrious air. At Amsterdam’s Tropenmuseum, diminutive Ho encountered a statue of titanic Dutch anthropologist Charles Le Roux.
The sight inspired Ho; he was even more captivated by the degree of perspiration that was evident in the visual of Le Roux (1885-1947). Today, the Singaporean, who divides time between USA and his homeland, is up with a video that combines the depth of a philosopher with the quirky humour of a youngster.
If his ‘Sun, Sweat, Solar Queens: An Expedition’ looks at the history of colonialism, the KMB’14 work at the main Aspinwall House venue in Fort Kochi is also one that would merit the visitor’s time to mull over.
One part of the installation is an image of the statue of Le Roux that Ho saw in 1864-founded Tropenmuseum. Ho came to know deeper about the anthropologist as one who had conducted field work in the Dutch East Indies in the early 20th century. A curios Ho noticed that the statue depicts him at work, with the back of his shirt drenched in sweat. That became a motif in his work at the biennale here.
A visitor at the installation Sun, Sweat, Solar,
 QueensAn Expedition of Artist Ho Rui An on display at Aspinwall House,
 the main venue of Kochi Muziris Biennale 2014.

“My point of departure was the sweat on Le Roux’s shirt. It made me think about the sun in the empire and the age of expedition,” says the Singaporean, who is also a writer. “This gives these men, who had a desire to enter into the unknown, more than just a disembodied feel. The sweat becomes an important indicator for labour and relationships within the empire.”
The work also has a video projection of Ho’s talk given in the inaugural week at KMB ’14 last month. The talk—interspersed with filmic and documentary clips—puts across the notion of a “global domestic” and a “world of global displacement” as against globalisation.
The photograph and the video are connected, in a way, by a little statue of Queen Elizabeth II or Ho’s “solar queen”, which does the royal wave powered by a solar panel; the artist points the panel is “placed on her bag rather than her back”.
“My work is about what it means to open to the world,” says Ho, whom KMB’14 curator Jitish Kallat first met as a student at London’s Goldsmith College, and then in New York, where he was also pursuing his studies. “There are often tensions and contradictions, and my work chooses to negotiate these politics.”
In keeping with his motif of sweat, Ho rounds of his talk with the time he saw the Queen at her Diamond Jubilee celebration and his “illusion of her was broken”. After she had waved to the crowds and she turned to return to the barge that was going down the River Thames, “for a fraction of a second, I swear I saw her sweaty back”, he says to loud laughter.

Ho says that an element of history in his work made it exciting for him to be at his first biennale and “see so much history embedded in the region”.
Artist Ho Rui An describing his installation to a gathering at Aspinwall House,
the main venue of Kochi Muziris Biennale 2014.
Notes Melanie Pelzer, who is visiting with her husband from Germany: “It is good to experience the social and philosophical depth of Ho’s work. I love that the biennale makes you think”.

Kallat says Ho's work lies at the cross-road where cinema, performance, narration and theory meet. “His performance lecture at KMB was a richly layered garland of imagery and ideas full of imagination, insight and irony,” he adds.  

डच मानवविज्ञानी की एक मूर्ति की पोशाक पर पसीने को देखकर सिंगापुर के कलाकार को मिली प्रेरणा


बिनाले में प्रदर्शित सिंगापुर के कलाकार की कृति में सोच और हास्य का संगम है
कोच्चि, 22 जनवरी: हो रूई एन का जन्म सिंगापुर में हुआ था, लेकिन कोच्चि - मुजिरिस बिनाले (केएमबी) में प्रदर्शित उनकी कृतियों में सूर्य और पसीने को देखकर ऐसा मानना गलत होगा कि इस नौजवान का लगाव उष्णकटिबंधीय द्वीप के गर्म और आर्द्र जलवायु से होगा।
Ho Rui An
24 वर्षीय कलाकार कहते हैं, कि कोच्चि में चल रहे बिनाले 2014 में उनकी कृतियां और उनका व्याख्यान वैसी छवि पर आधारित है जिसे उन्होंने स्वास्थ्यप्रद आबोहवा के लिए प्रसिद्ध नीदरलैंड की राजधानी में पुरातात्विक संग्रह में बहुत ही खराब हालत में रखी देखी थी। एम्स्टर्डम के ट्रोपेन संग्रहालय में, छाटे से कद के हो रूई एन का सामना भारी कद काठी के डच मानव विज्ञानी चार्ल्स ली रॉक्स की एक मूर्ति से हुआ था।
उस दृष्य ने हो को प्रेरित किया। वह ली राॅक्स (1885-1947) की इस मूर्ति के पसीने से काफी मोहित हो गये। आज, अमेरिका और अपने देश दोनों जगह समय बिताने वाले वाले सिंगापुर निवासी, एक ऐसे वीडियो को लेकर आये हैं जो दार्शनिक की गहराई को नौजवान के विचित्र हास्य के साथ जोड़ती है।
उनकी कृति ‘सन, स्वीट, सोलर क्वींस: ऐन एक्सपेडिशन’ में उपनिवेशवाद के इतिहास को चित्रित किया गया है
जबकि फार्टे  कोच्चि में मुख्य प्रदर्शनी स्थल - एस्पिनवाल हाउस में प्रदर्शित यह कलाकृति उन कलाकृतियों में से हैं जो दर्शकों को गहराई से विचार करने के लिए मजबूर करती है।
कलाकृति के एक हिस्से में ली राॅक्स की प्रतिमा की तस्वीर है जिसे हो ने 1864 में स्थापित ट्रोपेन संग्रहालय में देखा था। हो उस मानव विज्ञानी के बारे में गहराई से जानना चाहते थे जिन्होंने 20 वीं शताब्दी के शुरूआत में डच ईस्ट इंडीज में फील्ड वर्क किया था। हो ने उत्सुकतावश ध्यान से देखा कि प्रतिमा ने खुद को काम में व्यस्त रखा है और उसकी कमीज का पिछला हिस्सा पसीने में भीगा हुआ है। यही कारण है कि यह कलाकृति यहां बिनाले में उनकी कलाकृतियों में विशेष कलाकृति बन गयी।
सिंगापुर निवासी, जो कि एक लेखक भी हैं, कहते हैं, ‘‘मेरे लिये नया मुद्दा ली रॉक्स की कमीज पर पसीना था। इसने मुझे ‘अपने साम्राज्य में सूरज’ और अभियान के काल के बारे में सोचने पर मजबूर किया। यह अज्ञात में प्रवेश करने की इच्छा रखने वाले लोगों को अदृश्य महसूस करने की तुलना में कहीं अधिक देता है। पसीना साम्राज्य के भीतर श्रम और रिश्तों के लिए एक महत्वपूर्ण सूचक बन जाता है।’’
A visitor at the installation Sun, Sweat, Solar, Queens
An Expedition of Artist Ho Rui An on display at Aspinwall House,
the main venue of Kochi Muziris Biennale 2014.
इसके अलावा पिछले महीने के एम बी’14 में उद्घाटन सप्ताह में हो के द्वारा दिया गया भाषण का वीडियो प्रोजेक्शन भी है। इस भाषण में फिल्मी और डाॅक्युमेंट्री क्लिप्स भी हैं जो भूमंडलीकरण के खिलाफ ‘वैष्विक स्वदेशी ’’ तथा ‘वैष्विक विस्थापन की दुनिया’ की व्याख्या करता है।
महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की छोटी मूर्ति हो या हो के ‘सोलर क्विन’, फोटोग्राफ और वीडियो इनसे इस तरह से जुड़े हैं, कि ये सौर पैनल द्वारा संचालित भव्य लहर पैदा करते हैं। कलाकार कहते हैं कि इस पैनल को ‘अपनी
पीठ की बजाय बैग में रखा गया’ है।
हो कहते हैं, ‘‘मेरी कलाकृति दुनिया को खोलती है।’’ हो केएमबी’14 के क्यूरेटर जितिश कलात से पहली बार लंदन के गोल्ड स्मिथ काॅलेज में छात्र के रूप में मिले थे और उसके बाद न्यूयार्क में मिले, जहां उन्होनें अपनी पढ़ाई जारी रखी। हो कहते हैं, ‘‘इनमें तनाव और विरोधाभास है और मेरी कृतियां इन राजनीतियों के साथ समाधान करने का रास्ता चुनती हैं।’’
पसीने के मूल भाव को ध्यान में रखते हुए, हो अपनी बातचीत को उस दौर में ले जाते हैं जब उन्होंने रानी को उनकी डायमंड जुबली समाराहे में देखा था और उनके बारे में उनका भ्रम टूट गया। वह जोर से हंसते हुए कहते हैं, कि भीड़ से गुजरकर आने और उसके बाद टेम्स नदी की ओर जाती नाव में वापस लौटते समय एक सेकंड से कम समय के लिए, मैंने उनके पसीने से तर पीठ को देखा था।
Artist Ho Rui An describing his installation to a gathering at Aspinwall House,
the main venue of Kochi Muziris Biennale 2014.
हो कहते हैं कि उनके कार्य में इतिहास के एक तत्व ने उनके पहले बिनाले में होने और क्षत्रेमें इतना ज्यादा इतिहास को देखने को उनके लिए रोमांचक बना दिया।
जर्मनी से अपने पति के साथ आयी मेलानी पेलजर कहती हैं, ‘‘हो के काम की सामाजिक और दार्शनिक गहराई को अनुभव करना अच्छा है। मैं बिनाले को इसलिए पसंद करती हूँ क्योंकि यह आपको सोचने का मौका देता है।’’
कलात कहते हैं कि हो की कृतियां उस चैराहे पर पड़ी हैं जहां सिनेमा, प्रदर्शन, कथन और सिद्धांत मिलते हैं। वह कहते हैं, ‘‘के एम बी में उनका प्रदर्शन व्याख्यान कल्पना, अंतर्दृष्टि और विडंबना के कल्पना और विचारों से भरा है।’’

बुधवार, 21 जनवरी 2015

Young & eclectic 24x7 production team makes biennale memorable experience

Kochi, Jan 21: If the ongoing Kochi-Muziris Biennale (KMB) amazes local and foreign visitors with as many as 100 main works by 94 artists, a critical share of the credit for enlivening the spirit of the 108-day exhibition goes to a small but eclectic group that forms its production team.
Biennale Production :
The KMB '14 production team at the installation of
Belgian artist Wim Delvoye titled 'Nautilus' at CSI Bungalow.
Largely confined to behind-the-scene activities, their job is to ensure that the spotlight is turned on to the artists and their works. It speaks of a quiet activity that supports the Kochi Biennale Foundation which is hosting the international show concluding on March 29.
The production team, which is on call 24x7, starts every morning at 8 am with routine checks on the installations. The works that run on electrical supply, are switched on at 9 am, so that problems can be sorted in time for the opening an hour later.
“We make sure that the visitor experience is memorable and since it is not a gallery environment, the maintenance is high,” says KMB ’14 exhibition manager Preema John, who joined the biennale after an arts administration course on a Fulbright scholarship at the Chicago Art Institute. “But to give that seamless experience would mean that they get no idea of the effort that goes in at the back-end.”
Challenges come in many forms, but faulty electric supplies, dust and humidity are a constant, and there are dedicated teams to sort out audio-visual and electrical hitches. Some of the installations need constant attention; the dust in Pakistani artist Iqra Tanveer’s ‘Paradise of Paradox’ needs replacement every two hours.
“We got a special 25-KV line for London-based celebrity artist Anish Kapoor’s ‘Descension’, but because of the voltage fluctuation, the whirlpool now runs on a generator,” says Manu V R, who put his theatre-acting career on hold to work with the biennale’s production team. “We try and fix any problem within a 30-minute gap.”
Production team members Fahad T E, Vipin Dhanurdharan and Arjun R Nair, who started as volunteers on the first edition, look like students with their backpacks. But instead of books, their bags contain cello tape, glue, cutters, screw drivers and a scale; tools for a biennale emergency.
“The wiring for the exhibition was done from scratch over nearly two months,” says Fahad, whose enthusiasm does not seem to have waned a bit since he started work here nearly a year ago. “It is a different space, and the electrics have to support the spotlights, the high-end projectors for the video installations, and the home theatre systems. That was a big effort.”
A few artists, like Pors & Rao have kept their own assistants on standby in case of technical hitches.
Housekeeping staff spray the tarred paths along the Aspinwall House venue with water almost every hour to settle the dust and almost every other day, the team clean the installations under biennale director Bose Krishnamachari’s watchful eyes. In some complex works, the artists themselves have provided housekeeping materials.
“We use gloves, a soft brush, cloth and special oils provided by Ryota Kuwakubo to clean the many elements on his ‘Lost’ installation,” says Fahad. “Because the central piece, the train, is just 9mm big, even a speck of dust can disrupt the work.”
Apart from making sure that the installations are shipshape, the production team also always have an eye on the visitors to whom contemporary art is still a new experience. “We are keen to make people understand and learn to look at art,” says Shyam Patel, an engineering graduate from Gujarat, who has returned for a second stint on the biennale. “It is heartening to see that the audience are already better equipped to appreciate art after the first biennale.” 

The team, which is passionate about the biennale, values the learning experience that the exhibition provides. “Each artist works in a particular way and we imbibe things unknowingly and put it into our own practice,” says Vipin, an artist in the making. “Benita Perciyal was very keen to keep the natural integrity of her space at Pepper House, a heritage structure, when she created ‘The Fires of Faith’. Even the property owners were thrilled with how she did it up. It was a lesson for us, as well.” 

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

सामूहिक कलाकर्म पर आधारित है बिनाले में प्रदर्शित नंदकुमार की कृतियां


पुणे सिथत कलाकार स्थानीय क्षेत्र में अभिनव परियोजना पर कर रहे हैं काम
कोच्चि, 20 जनवरी : पत्ताें से भरे एक परिसर के शांत माहौल में विरासत संरचनाओं के पास पुननिर्मित एक टाइल छत वाली इमारत के अंदर पी. के. नंदकुमार ने अपने चुनिंदा कलाकृतियाें को प्रदर्शित किया है। इन्हें कोच्चि मुजिरिस बिनाले (के एम बी) के तहत प्राचीन और नए कला के वर्गीकरण के साथ प्रदर्शित किया गया है।
एक प्राचीन आराधनालय, एक हिंदू मंदिर और एक डच पैलेस वाले मट्टानचेरी में ऐतिहासिक यहूदी टाउन के शोरगुल से थोड़ी ही दूरी पर, मध्यम उम्र के चित्रकार-मूर्तिकार ने अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित किया है जिन्हें वे अपने निवास स्थान पुणे से लाये हैं और जिनका निर्माण उन्हांनेे इस तटीय शहर से एकत्र सामग्रियों से किया है। वास्तव में, ये कृतियां विचाराें का जमावडा़ है जिनमें से कुछ कृतियां आगतुंकाें को बेहद पसंद आ रही हैं और इस तरह यह एक 'समुदाय संग्रहालय की अवधारणा की पुष्टि करता है।
उत्तरी केरल के कोझीकोड निवासी, नंदकुमार ने पिछले दो दशकों तक महाराष्ट्र के शहर में कला का अध्ययन किया है। अपने अध्ययन के दौरान सौंदर्य के प्रति उनका लगाव विकसित हुआ, जिसने भारत के एकमात्र बिनाले का आयोजन कर रहे अपने मूल राज्य केरल में लोगाें के साथ इंटरैक्टिव सत्र आयोजित करने के लिए उनके उत्साह को बढ़ाया। इस कलाकार ने साढ़े पांच शताब्दी पुरानी प्रार्थना के लिए प्रसिद्ध यहूदी घर के पास सिथत 1555 में बनाये गये पैलेस और पाझायान्नुर भगवती मंदिर से थोडी़ दूर स्थित इसी भूखंड पर 2012 के पहले केएमबी में भी अपनी कलाकृतियाें को प्रदर्शित किया था।
पहले के एम बी में अपनी पहल से लेकर अभी चल रहे सत्र में, नंदकुमार ने अपनी कृतियाें को 'द लैड रि- फार्म्ड 2 का नाम दिया है।
आखिर यह सब शुरू कैसे हुआ? कलाकार ने कहा कि दरअसल, डच पैलेस के केंद में सिथत आंगन में पाझान्नुर भगवती मंदिर पिछली पांच शताबिदयों से सामाजिक सम्बन्धों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थापना के रूप में सेवारत है। वाटर बाडी के पास उन्होंने कहा, ''यह जरूरतमंद लोगाें को रोजाना दिये जाने वाले नि: शुल्क भोजन के लिए लोकप्रिय था। यहां डायनिंग हॉल और तालाब के रूप में इस्तेमाल किये गये संरचनाओं के अवशेष का इस्तेमाल अभी भी बर्तन साफ करने के लिए किया जाता है।
पुणे के महिंद्रा यूनाइटेड वर्लड कॉलेज में पढ़ाने वाले नंदकुमार ने अपने कुछ दोस्तों के साथ इस भूखंड को आंशिक रूप से बहाल करने में मदद के लिए 2012 में एक महीने तक सफार्इ अभियान और एक प्रदर्शनी शुरू की। उन्हांनेे कहा, ''यह आम लोगों के लिए एक प्रेरणादायक आयोजन था। इस अभियान और प्रदर्शनी ने समुदाय को एक साथ लाने और मंदिर के चारो ओर वाटर बाडीज सहित सांस्कृतिक और पर्यावरण की दृष्टि से कमजार क्षेत्रों के संरक्षण के मुद्दे के समाधान के लिए एक कदम की शुरुआत करते हुए कला के मूल्य पर प्रकाश डाला।
दूसरे बिनाले के कट, और उनकी गैलरी के लिए प्रवेश द्वार के बिल्कुल दाहिनी ओर 1993 की एक मूर्ति है जिसे देखकर समझदार दर्शक अचंभित हो सकते है। यह धातु से निर्मित आठ फीट लंबी मूर्ति है जिसे दोनों ओर से लोहे की जंजीर से संतुलन प्रदान किया गया है। यह जंजीर क्षैतिज रॉड  से ऊपर की ओर जाती है, जिसे अब कहीं लटका दिया गया है। तो फिर यह मूर्ति कैसे खड़ी है? नंदकुमार कहते हैं, ''इसका कारण बिल्कुल सामान्य है। जंजीर खंभे के रूप में कार्य करती है, इसलिए यह मूर्ति खड़ी है। नंदकुमार के कला संबंधित कार्यों में पवित्र वस्त्रों का संग्रह शामिल है जिन्हें मलयालम में  तिरूवुडायाडाहाल कहा जाता है। नंदकुमार कहते हैं, ''लोग, विशेषकर दूर और पास की महिलाएं यहां आ सकती हैं और इन कपड़ों से आकार (वास्तव में  पास के मंदिर में  देवी-देवताओं को कपड़े पहनाना) बना सकती हैं। मूलत:, कला संबंधित मेरे कार्य एक समुदाय आधारित कला परियोजना का हिस्सा हैं।
दिलचस्प बात तो यह है कि नंदकुमार ने अपने पुरानी दिखने वाली पत्थर की मूर्तियां और तांबे के बक्शों  को परिसर से एकत्र किये गये विरासत वस्तुओं के साथ मिला दिया है। इस तरह उन्होनें अपने संवेदनशील दिमाग का इस्तेमाल करते हुए प्राचीन वस्तुआें से नयी वस्तुओं का निर्माण किया।
यहाँ उत्तराखंड के टिहरी जिले में अभी डूबे हुए गांव पर एक कृति को प्रदर्शित किया गया है जिसे नंदकुमार ने पानी के साथ नये रूप में प्रदर्शित किया है।
इन कृतियाें के बीच, एक अन्य कलाकार कन्नूर जिले में कोट्टीयुर के एम. जे. इनास की मूर्तियां हैं। दिल्ली आधारित इस मूर्तिकार की मूर्तियां पीतल से बनी हैं। उन्हांनेे फाइन आर्ट कालजे से अपनी कला का अध्ययन किया है जो तिरुवनंतपुरम में 49 वर्षीय नंदकुमार की मातृ संस्था  है।
पिछले महीने, नंदकुमार ने स्थानीय विधालय के छात्रों को क्ले मॉडलिंग में प्रशिक्षित किया। उन्हांनेे एक पारंपरिक छवि के साथ 'कलामेझुटु का आयोजन किया जिसके तहत पलक्कड़ जिले में  पट्टाम्बि से बेबी कुरुप के नेतृत्व में तीन कलाकारों ने मुख्य हॉल से सटे एक कमरे में प्राकृतिक पाउडर के इस्तेमाल से 12 गुना 10 फीट की एक कलाकृति का निर्माण किया।
नंदकुमार कहते हैं, ''यह कला और अन्य दृश्य माध्यमाें के साथ - साथ साहित्यिक माध्यम के द्वारा समुदायों  के अतीत और वर्तमान को सामने लाने का एक प्रयास है।

रविवार, 18 जनवरी 2015

Two moods, two mediums, one underlying theme

 Kishore Thukral’s photo show ‘ephemera…’ captures Life and Nature through lens and verse

New Delhi, Jan 18: A quintessential backpacker who loved to trek in the Himalayas, Kishore Thukral barely realized his frequent trysts with the mountains were giving him a perspective of life and an overpowering itch for its articulation.

So the Delhi-based artist picked not one but two powerful mediums — camera and poetry — to portray and unravel the mysteries of life he experienced in the lap of Nature and in the maelstrom of urban life.
Kulu valley, Himachal Pradesh, India (October 2011).

The result is a pioneering solo photography show “ephemera…”, which is also the name of his book of verse — the two being in a perfect symmetry with the cardinal Buddhist principle that everything is transient; decadence underpins even the grandest in Nature and the most superlative in human life.

The week-long exhibition, which was opened by well-known music composer Shantanu Moitra in the presence of renowned actress-painter-photographer Deepti Naval at India Habitat Centre on Wednesday, is both a visual grandeur and an experiential journey hurtling through an angst-ridden, chaotic life in an urban set up.

The middle-aged visual artiste notes the camera became “a tool to aid my memory” much later after he developed keenness to visit the upper Himalayas, opening a whole new view to places and vision about life at large. “Often memory fails; all that remains is a photograph. At times photographs fade, memory doesn’t. Together they are like night and day – two parts of a whole.”

The exhibition, which showcases 73coloured pictures from ‘thousands and thousands’ shot by the artist over a span of 15 years, focuses on the transient nature of life shot through diverse geographies — from Ladakh to Nepal, from Mauritius to Japan, from Spiti to Cambodia.

“All creations are in colour. I don’t have the right to change it,” says the artiste, explaining the absence of pictures in black and white.

Particularly mesmerising are the images of an old bespectacled lady (Solang Nala, Manali), an aged woman with creases on her face (Bangkok), four Buddha sculptures from the Bayon temple, Angkor (Vietnam) – all regal, serene but decaying. Then there are the pictures of a cock as if in a meditation outside a temple in Nepal; the panoramic view of Kulu Valley;  the windswept Landour; the shimmering sunrays in Naini lake; a hot air balloon suspended among the clouds in Solang, a tree stump decaying in Naini lake, and a bus stuck in a landslide at Kinnaur – all of these have a certain magical quality about them with a profound philosophy lurking everywhere.
“My inquisitiveness to know more about the Himalayan habitation led me to grasp the essence of the faith of its people, their monasteries and temples—and art in its entirety. My rambles in the mountains led me to water, water to habitation, habitation to faith, faith to monasteries and temples, monasteries and temples to art,” points out Thukral, who has photographed some rare and ancient thangkas in small temples in Spiti

“My rambles led me to another realization…that, like a bubble in the water, like a flash of lightning, like a dewdrop on a blade of grass… everything is EPHEMERA. Nothing is here to stay.”

Front-ranked art historian and curator Alka Pande, who has curated the exhibition, says it is the Buddhist philosophy that permeates Thukral’s spectacular body of work. “But his signature lies in his very powerful single images. All images speak of little stories and capture relationship between his inner mindscape and external landscape. It is like a novella with many independent chapters in it.”

Particularly impressive are the fishing net from Cambodia and metro rail in Japan – a juxtaposition of tradition and modernity, of handmade and machine-made. There are also poetic images of trees and there are slices of life that speak of his passion and commitment to his craft, she points out.

The pictures have a common thematic feature binding them. The beauteous Nature and people in frames are refreshingly fascinating even as the camera seldom resorts to unconventional techniques.

Deepti Naval, who released the book, “ephemera…”, said the camera has become an inseparable part of Kishore. “I have seen him use it instinctually, like an artist handling his brush. Understandably, his photography is intuitive, not laboured…. Going through his book it becomes difficult to say whether it is his image or his words that are more evocative.”

The 198-page book has 171 photos in total, capturing the various moods of the mountains and life of the people. Impermanence is the over-arching idea conveyed in the book. The journey portrayed in the book is that of the author, but the clear suggestion is that “it is everybody’s”.
 
Naini Lake, Nainital, Uttrakhand (May 2014).
Thukral has a smashing reputation for shooting images related to Buddhist life and landscape upcountry, and has authored the book Spiti through Legend and Lore, which documents the legends and folklore of the valley both in text and in photographs. His other works include The Chronicler’s Daughter (2002), a novel. He has also the credit of compiling and editing Sharanam Gachhami: an Album of Awakening (Full Circle) in 2011, a coffee-table book of photographic interpretation on Buddhist principles, shot by 20 famous photographers, including Richard Gere, Raghu Rai and Steve McCurry.

 “…In this Cosmos of Eternity, what am I but mere EPHEMERA!” observes the poet-artist.

The exhibition will be on view till January 20 at the Visual Arts Gallery, India Habitat Centre before it shifts to the capital’s Taj Palace, T-lounge on 26th January to 1st February.

Biennale suggests India ready for more experimental work: YPO group


Kochi, Jan 18: The Kochi-Muziris Biennale (KMB) 2014 coveys the message that India is poised to take forward a recent surge in the country’s experimental work in the field of art, according to the Young Presidents’ Organization (YPO), which scheduled its annual retreat at the 108-day exhibition on in this city.
YPO group
“The show, with its variety of mediums, blew my mind away,” said YPO Mumbai chapter’s Dinesh Vazirani of Saffronart, a leading auction house for art and antiquities based in that metropolis. “The second coming of the biennale, which has found a space for such interesting, experimental work shows that we can now have more of this. I hope this goes forward and gets transported to the spaces that we live in.”
The 40-strong group, which consists of head honchos of Mumbai businesses, lauded the gumption of the Kochi Biennale Foundation (KBF) for pulling off such an event. “The scale of the show is eye-popping,” said Vazirani, who organised the trip. “You could not have something like this in Mumbai, so I would ask everyone to please come to this scenic corner of India and see the exhibition.”
Founded originally in USA in 1950, YPO with is a global network of young chief executives  with approximately 22,000 members in more than 125 countries—and aims to provide members with increased opportunities for success in the global marketplace by assisting them to form partnerships with other members all over the world.
The delegates who visited the biennale said that the contrast between the old-world feel of Fort Kochi and the contemporary exhibition was striking, and the fact that the exhibition is titled in favour of the local region makes it interesting and is not what would be usually seen at art shows. “This region takes you back a few centuries and it is incredible that the KBF has attempted to bring such an event here,” said Archana Hingorani, CEO of an investment management company. “It is great for the community to have something like this, where they can be involved and broaden their horizon.”
Even for the art collectors in the group, who have been to other international biennales, the show felt “extraordinary”. “It is wonderful to see that the artists have pushed themselves to link their work to Kochi,” said Amrita Jhavari, a gallerist, collector and art advisor. “It is really poetic. It is a really tightly curated show; you can tell the different that came from the artists working with a curator and here, the artists working with Jitish Kallat, who is first an artist and then, a curator.”
The Mumbai YPO group was here on a three-day visit of the KMB ’14 sites. The retreat also included a talk by the country’s top five collectors. “The retreats are meant to be educational and fun,” said Vazirani. “It’s a ‘Whorled Exploration’”.