बुधवार, 18 मार्च 2015

नए जमाने की पोशाकों में झलक रही है प्राचीन डेक्कन कला: संगोष्ठी

नई दिल्ली, 17 मार्च: मध्यकालीन युगीन दक्षिणी भारत में विकसित सौंदर्य कलायें नए जमाने के परिधानों की कढ़ाई में भी अपनी जगह बना रही है और अपने अस्तित्व को बचा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि दक्षिणी भारत की प्राचीन कला बदलती परिस्थितियों में भी खुद को बदलने की क्षमता को प्रदर्शित  कर रही है।
राष्ट्रीय संग्रहालय की ओर से आज आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में विशेषज्ञों ने कहा कि चाहे कर्नाटक की कसुटी और जरी ब्रोकेड हो, आंध्र प्रदेश की कलमकरी और बंजारा हो, तमिलनाडु की तोडा या केरल की फूलों की डिजाइन हो, आज के वस्त्रों में, मुख्य रूप से साडि़यों में डेक्कन की कढ़ाई की छवियां अब भी दिख रही हैं।
उदाहरण के लिए, मंदिरों , रथों, पालकियों  और दीपक के डेक्कनी चित्रण प्रायद्वीप में निर्मित समकालीन वस्त्रों में नवीन अभ्यावेदन को दर्शाते हैं जहां प्रासंगिक कला 16 वीं से 19 वीं शताब्दी के बीच फली- फूली। ‘दक्षिण भारत और वस्त्र संग्रह की निवारक देखभाल से कढ़ाई की कला’ के उद्घाटन सत्र में आज इसकी जानकारी दी गयी।
उद्घाटन सत्र के अपने मुख्य भाषण में कला इतिहासकार चूड़ामणि नंदागोपाल ने कहा, ‘‘बंजारा के लिए, यहां तक कि क्षेत्र की युवा पीढ़ी में भी चमकीले रंगों के प्रति क्रेज है। यहां डिजाइनों में यहां तक कि इस दौरान भी बदलती रुचि के अनुसार बदलाव आ रहे हैं ।’’ इस समारोह का आयोजन राष्ट्रीय संग्रहालय में अभी चल रही और एस्थेटिक प्रोजेक्ट द्वारा नियोजित प्रदर्शनी ‘नौरस: डेक्कन की कई कलाएं’ के मौके पर किया जा रहा है। 2014 में स्थापित एस्थेटिक प्रोजेक्ट भारतीय कला की जांच- पड़ताल करने के लिए शिक्षाविदों, कारीगरों और कलाकारों के लिए एक स्थापना मंच है।
जैन यूनिवर्सिटी, बंगलौर के डीन ने कहा कि टोडा की निरंतर लोकप्रियता यह दर्शाती है कि आदिवासी जड़ों के साथ किसी कला ने अपने निवास स्थान तमिलनाडु से दूर और नजदीक की एक व्यापक दुनिया की कल्पना पर किस प्रकार कब्जा किया हुआ है।
एक दर्जन से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फैलोशिप हासिल करने वाले डॉ नंदगोपाल ने कहा कि ओणम के फसल त्योहार के दौरान घरों के सामने यार्ड में बिछायी जाने वाली केरल के प्रसिद्ध फूलों की कालीन की छवियों का इस्तेमाल , बेड-शीट और तकिया कवर जैसे कपड़े के सामानों में भी किया जा रहा है। राज्य में सीरिया कढ़ाई का भी प्रचलन है जो एक संपन्न विदेशी सांस्कृतिक प्रभाव का संकेत है।
इससे पहले, राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. वेणु वासुदेवन ने अन्य वक्ताओं: संग्रहालय की क्यूरेटर (सजावटी कला) अनामिका पाठक, संरक्षण की निदेशक डॉ. आर. पी. सविता और रसायनज्ञ पी. के. नागटा के साथ दीप प्रज्जवलित करने के बाद वक्तव्य दिया।
अगले सत्र में सुश्री पाठक ने दुर्लभ और लंबी कशीदाकारी की हुई ‘टेम्पल हैंगिंग’ के तकनीक और सौंदर्य के बारे में बताया। ‘टेम्पल हैंगिंग’ को राष्ट्रीय संग्रहालय ने 1960 में हासिल किया था और अभी इसे 20 अप्रैल (एक महीने के विस्तार के बाद) को समाप्त होने वाले ‘नौरस’ में प्रदर्शित किया गया है।
दोपहर के सत्र में डॉ. सिमी भगत, डॉ. रोहिणी अरोड़ा, डॉ. वंदना भंडारी और स्मिता सिंह जैसे विशेषज्ञों ने वक्ता के रूप में दक्षिण भारत की सिलाई परंपराओं का विश्लेषण किया।
बुधवार को कशीदाकारी वस्त्रों के रूढि़वादी पहलुओं पर फोकस किया जाएगा। दो सत्रों में संग्रहालय के वातावरण में कपड़ों के संरक्षण के लिए निवारक देखभाल, तरीके और प्रथाओं जैसे मुद्दों को संबोधित करने की उम्मीद है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायक विद्या राव शाम में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे।

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